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Tuesday, January 26, 2021

72th_HAPPY_REPUBLIC_DAY

 #72th_HAPPY_REPUBLIC_DAY

नमो बुद्धाय जय भीम : आप सभी देशवासियों को 26 जनवरी 2021 की हार्दिक बधाई, इस साल हम लोग 72वां गणतंत्र दिवस मनाएंगे। हम लोग 26 जनवरी को ही गणतंत्र दिवस क्यों मनाते है? दरअसल, साल 1950 में 26 जनवरी के दिन ही हमारे देश में संविधान लागू हुआ था, जिसके उपलक्ष्य में हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने के लिए भारतीय संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया गया था, लेकिन इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने संविधान को दो साल, 11 महीने और 18 दिनों में तैयार कर राष्ट्र को समर्पित किया था। हमारा संविधान विश्‍व का सबसे बड़ा संविधान माना जाता है। इसे बनाने वाली संविधान सभा के अध्यक्ष बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर थे।

Sunday, October 14, 2018

आइये जानते है धम्म दीक्षा दिवस 14 अक्तूबर, 1956 के बारे मे

आप सभी देशवासियो  को धम्म  दीक्षा दिवस 14 अक्टूबर  1956 की हार्दिक धम्मकामनायें 


वर्तमान भारत में जब-जब भगवान बुद्ध को स्मरण किया जाता है, तब-तब स्वाभाविक रूप से बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर का भी नाम लिया जाता है। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद बहुत बड़ी संख्या में एक साथ डा0 अम्बेडकर के नेतृत्व में ही मत परिवर्तन हुआ था। 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में यह दीक्षा सम्पन्न हुई।दीक्षा विधि की विस्तृत योजना तैयार करने वाले उनके सहकारी वामनराव गोडबोले के अनुसार बाबा साहब ने सुबह से ही तैयारी की। उन्होंने दिल्ली से मंगाया सफेद लम्बा कोट, सफेद रेशमी कुरता और कोयम्बटूर से मंगायी सफेद धोती पहनी। पैर में बिना फीते वाला जूता पहना। इस प्रक्रिया में उनकी पत्नी डा0 सविता अम्बेडकर (माईसाहब) और रत्ताू ने उनकी सहायता की। इसके बाद वे विशेष रूप से बनाये गये दीक्षा स्थान पर गये।

बाबा साहब श्याम होटल में ठहरे थे। वहां से निकलने से पहले अपने सहयोगी गोडबोले को उन्होंने कहा कि आज जो कुछ होने जा रहा है, यह मेरे पिताजी के कारण ही संभव हो पा रहा है। वे बहुत धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने ही मेरा धार्मिक मानस बनाया है। इसलिए दीक्षा से पूर्व सबको उन्हें श्रध्दांजलि देनी चाहिए। गोडबोले की सूचना पर सबने दो मिनट मौन खड़े होकर स्व0 रामजी सकपाल को श्रध्दांजलि दी। दीक्षा विधि प्रारम्भ होने पर सर्वप्रथम उन्होंने और माई साहब ने मत परिवर्तन किया। उन्होंने तत्कालीन भारत के वयोवृद्ध भन्ते चंद्रमणि से बौद्ध मत का अनुग्रह पाली भाषा में लिया। बाबासाहब हिन्दू और बौद्ध मत को एक वृक्ष की दो शाखा मानते थे। उनके मन में हिन्दू धर्म के प्रति कितना प्रेम था, यह इस बात से प्रकट होता है कि जब उन्होंने यह कहा कि आज से मैं हिन्दू धर्म का परित्याग करता हूं, तो उनके नेत्र और कंठ भर आये। यह कार्यक्रम 15 मिनट में पूरा हो गया। इसके बाद महाबोधि सोयायटी ऑफ इंडिया के सचिव श्री वली सिन्हा ने उन दोनों को भगवान बुद्ध की धर्मचक्र प्रवर्तक की मुद्रा भेंट की, जो सारनाथ की मूर्ति की प्रतिकृति थी।

इसके बाद बाबा साहब ने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब आपमें से जो भी बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहें, वे हाथ जोड़कर खड़े हो जाएं। लगभग पचास-साठ हजार लोग खड़े हो गये। मंचस्थ लोग भी इसी मुद्रा में खड़े हुए। बाबा साहब ने उन्हें 22 शपथ दिलाईं, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थीं। इस प्रकार दो घंटे में यह पूरा कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। बाबा साहब को आशा थी कि केवल हिन्दू ही उनके साथ मत परिवर्तन करेंगे; पर कुछ मुसलमान और ईसाइयों ने भी बौद्ध मत ग्रहण किया। जब बाबा साहब के ध्यान में यह आया, तो उन्होंने कहा कि हमें अपनी प्रतिज्ञाओं में कुछ बदल करना होगा, क्योंकि उनमें हिन्दू देवी-देवताओं और अवतारों को न मानने की ही बात कही थी। यदि मुस्लिम और ईसाई बौद्ध बनना चाहते हैं, तो उन्हें मोहम्मद और ईसा को अवतार मानने की धारणा छोड़नी होगी। यद्यपि यह काम नहीं हो पाया, क्योंकि इस समारोह के डेढ़ माह बाद छह दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब का देहांत हो गया।


यह धर्म परिवर्तन था या मत परिवर्तन, यह बहस का विषय हो सकता है; पर डा0 अम्बेडकर ने इसे धर्म परिवर्तन ही कहा है। उन्होंने स्वीकार किया है कि सबसे पहले 13 अक्तूबर 1935 को येवला में जब उन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की, तो उनसे अनेक लोगों ने सम्पर्क किया। इनमें सिख पंथ के लोग थे, तो आगा खां व निजाम जैसे मुस्लिम व ईसाई मजहब वाले भी। निजाम हैदराबाद ने पत्र लिखकर उन्हें प्रचुर धन सम्पदा का प्रलोभन तथा मुसलमान बनने वालों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासंभव पूर्ति की बात कही, तो ईसाइयों ने भी ऐसे ही आश्वासन दिये; पर डा0 अम्बेडकर का स्पष्ट विचार था कि इस्लाम और ईसाई विदेशी मजहब हैं। इनमें जाने से अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते, तो मुस्लिमों की संख्या भारत में दोगुनी हो जाती तथा देश में उनका वर्चस्व बढ़ जाता। यदि वे ईसाई बनते, तो उनकी संख्या पांच-छह करोड़ हो जाने से ब्रिटिश सत्ताा की पकड़ मजबूत हो जाती। इस कारण बाबा साहब इन मजहबों में जाने के विरुद्ध थे।

दूसरी ओर वे भारत भूमि में जन्मे तथा यहां की संस्कृति में रचे बसे सिख पंथ के समर्थक थे। एक समय तो उन्होंने अपने समर्थकों सहित सिख बनने का निर्णय कर ही लिया था। अप्रैल 1936 में अमृतसर के गुरुद्वारे में एक सभा हुई, जिसमें डा0 अम्बेडकर सिख वेश में उपस्थित थे। 18 जून, 1936 को बाबासाहब की हिन्दू महासभा के एक बड़े नेता डा0 मुंजे से भेंट हुई। इसके बाद डा0 मुंजे 22 जून को मुंबई गये, जहां उन्होंने बाबासाहब के इस निर्णय को हिन्दू समाज का समर्थन दिलाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू सभा के नेता बैरिस्टर जयकर, सेठ जुगलकिशोर बिड़ला, विजय राघवाचारियर, राजा नरेन्द्रनाथ तथा शंकराचार्य जैसे लोग उनके समर्थन में आये; पर किसी कारण से यह योजना स्थगित हो गयी। आगे चलकर डा0 अम्बेडकर के ध्यान में आया कि सिख पंथ भी जातिभेद से पीड़ित है। अत: उन्होंने सिख बनने का विचार त्याग दिया।

अब बाबासाहब ने जातिभेद से मुक्त बौद्ध मत की ओर ध्यान दिया। 1935 से 1956 तक की उनकी यात्रा इसी ओर संकेत करती है। उन्होंने इटली के भिक्खु सालाडोर सहित अनेक बौद्ध भिक्खुओं से चर्चा की। रैशनलिस्ट एसोसिएशन, मद्रास के कार्यक्रम में उन्होेंने 1944 में ‘बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म’ विषय पर भाषण दिया। 1948 में अपने प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित ग्रंथ ‘हू वर शूद्राज’ में उन्होेंने भगवान बुद्ध को भी शूद्र बताया। जनवरी 1950 में उन्होंने बुद्ध जयंती सार्वजनिक रूप से मनायी। 1950 में महाबोधि सोसायटी के मुखपत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में अपने विचार व्यक्त किये। 5 मई, 1950 को ‘जनता’ समाचार पत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रति अपने झुकाव को अधिकृत रूप से घोषित किया।

इसी मास में श्रीलंका में आयोजित बौद्ध धर्म परिषद में वे निरीक्षक के नाते उपस्थित रहे तथा वहां के अस्पृश्यों को बौद्ध मत ग्रहण करने का आह्नान किया। जुलाई 1950 में वरली में बुद्ध मंदिर के उद्धाटन के समय उन्होंने अपना शेष जीवन भगवान बुद्ध की सेवा में समर्पित करने की घोषणा की। 1954 में विश्व बौद्ध परिषद के तृतीय अधिवेशन में में रंगून (बर्मा) गये। वहां उन्होंने श्रीलंका और बर्मा के अपने अनुभव के आधार पर बौद्ध धर्म में ऊपरी तामझाम और समारोहप्रियता की आलोचना की। उन्होंने इस पर होने वाले व्यय को धर्मप्रचार पर करने को कहा।

1955 में उन्होंने मुंबई में ‘भारतीय बौद्धजन सभा’ की स्थापना की। दीक्षा लेने के बाद इस संस्था का नाम ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ हो गया। मार्च 1956 में अश्वघोष रचित ‘बुद्ध चरित’ पर आधारित उनका ‘दि बुद्ध एंड हिज धम्म’ नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ। मई 1956 में बी.बी.सी लंदन से उनका बौद्ध धर्म पर व्याख्यान प्रसारित हुआ। स्पष्ट है कि वे धीरे-धीरे इस ओर आकृष्ट हो रहे थे।

बाबा साहब ने बौद्ध मत को तत्कालीन प्रचलित परम्पराओं के बदले उसके संशोधित रूप में स्वीकार किया। ‘दि बुद्ध एंड हिज द्दम्म’ तथा 1951 से 1956 के उनके भाषणों से यह प्रकट होता है। भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण्ा से पूर्व अपने शिष्य आनंद को अपनी बुध्दि और सत्य की शरण में जाने को कहा था। बाबा साहब ने भी धर्मान्तरण से काफी समय पूर्व अपने अनुयायियों को कहा था कि मैं आपसे बौद्ध धर्म में आने का आग्रह तो करता हूं; पर इससे आपस में फूट नहीं पड़नी चाहिए। जो इसमें आना चाहें, वे केवल भावना के वश होकर नहीं, अपितु विचारपूर्वक इसे ग्रहण करें।

बाबा साहब ने बौद्ध धर्म में प्रचलित चमत्कार व कथाओं को नहीं माना। 29 वर्ष की अवस्था में सिध्दार्थ के गृहत्याग के बारे में कहा जाता है कि एक वृद्ध, एक बीमार और एक मृतक को देखकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। बाबा साहब का मत था कि इस अवस्था तक यह संभव नहीं कि उन्होंने कभी वृद्ध, बीमार या मृतक को न देखा हो। इसी प्रकार उन्होंने चार आर्य सत्यों को बौद्ध धर्म की मूल मान्यताओं के विपरीत बताते हुए कहा है कि ये भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित नहीं हैं। यदि जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म सब दुख है, तो फिर मनुष्य की आशा नष्ट हो जाती है और व्यक्ति निराशावादी बनता है। इसलिए अपने ग्रंथ में उन्होंने इन चारों का उल्लेख नहीं किया।

बाबा साहब बौद्ध धर्म की वर्तमान संघ व्यवस्था के भी समर्थक नहीं थे। इसलिए उन्होंने दीक्षा के समय ‘संघ शरणं गच्छामि’ नहीं कहा। विश्व में बौद्ध मत में हीनयान और महायान नामक दो पंथ मुख्यत: प्रचलित हैं। बाबा साहब ने इन दोनों को यथारूप में स्वीकार नहीं किया। इस विषय में श्री माडखोलकर ने उनसे पूछा कि तब क्या आपके पंथ को भीमयान कहें ? बाबा साहब ने हंसते हुए कहा कि चाहे तो आप इसे नवयान कहें; पर मैं इसे भीमयान कहकर स्वयं को भगवान के बराबर खड़ा नहीं कर सकता। मैं तो एक छोटा आदमी हूं। मैंने संसार को नया विचार नहीं दिया। हां, भगवान द्वारा प्रवर्तित धर्मचक्र जो पिछले हजार साल से इस देश में रुका हुआ था, मैंने केवल उसे पुन: प्रवर्तित किया है।

बाबा साहब का मत था कि बौद्ध धर्म अंतरराष्ट्रीय होने के बाद भी हर देश में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उसमें कुछ प्रथाएं जुड़ गयी हैं। ऐसी प्रथाएं सारे विश्व में एक समान हों, यह आवश्यक नहीं। उदाहरणार्थ तिब्बत में किसी व्यक्ति के मरने पर लामा उसके शव के टुकड़े कर उन्हें मसलकर गोले बनाकर ऊपर फेंकते हैं, जिससे गिद्ध उन्हें खा जाएं; पर भारत में यह परम्परा चलाना संभव नहीं है। बाबा साहब ने बौद्ध धर्म में दीक्षा विधि प्रारम्भ की, जबकि इसका प्रतिपादन भी भगवान बुद्ध ने नहीं किया तथा यह बौद्धधर्मी अन्य देशों में प्रचलित नहीं है। उनका मत था कि एक समय पूरा भारत बौद्धधर्मी हो गया था; पर जब शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता पुनर्स्थापित की, तो सारे बौद्ध फिर हिन्दू बन गये। बाबा साहब के अनुसार बौद्ध धर्म में कोई दीक्षा विधि न होने के कारण बौद्ध बने लोगों ने हिन्दू देवी-देवता, पर्व, त्यौहार आदि को मानना नहीं छोड़ा। हिन्दुओं ने भी बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मान कर अपने धर्म में समाविष्ट कर लिया।

उनका कहना था यदि ऐसा न किया, तो हो सकता है कि हिन्दू मुझे विष्णु का 11वां अवतार कह कर हमारे लोगों को फिर हिन्दू बना देंगे। इसलिए उन्होंने दीक्षा विधि की कठोर प्रतिज्ञाओं में हिन्दू देवी-देवताओं को न मानने को प्रमुखता से समाविष्ट किया। वे बौद्ध विद्वान, प्रवचनकार और शास्त्रार्थ करने वाले तैयार करना चाहते थे; पर समयाभाव के कारण यह संभव नहीं हो पाया।
यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि बाबा साहब के इस कार्य से देश और हिन्दू धर्म को क्या लाभ हुआ ? इसके उत्तार में यही कहा जा सकता है कि बौद्ध मत भारत की मिट्टी से उपजा होने के कारण बौद्ध लोगों की निष्ठा कभी देश से बाहर नहीं हो सकती, जबकि मुस्लिम और ईसाई मजहब के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए बाबा साहब का देश और हिन्दू समाज पर बहुत बड़ा उपकार है। उन्होंने समाज के निर्धन, निर्बल और वंचित वर्ग के लिए एक ‘सेफ्टी वाल्व’ बना दिया, इसके न होने पर उनमें से अनेक लोग धन, शिक्षा या नौकरी आदि के लालच में मुस्लिम या ईसाई बन सकते थे।

इस मत परिवर्तन से हिन्दू समाज के कई बड़े नेताओं ने अपने व्यवहार में परिवर्तन किया। बाबासाहब द्वारा धर्मान्तरण की घोषणा के बाद मैसूर शासन ने राजाज्ञा द्वारा अस्पृश्यों को दशहरा दरबार में आने की अनुमति दी। त्रावणकोर शासन ने भी अपने अधिकार के 30,000 मंदिरों को सबके लिए खोल दिया। 

डा बी.आर. अम्बेडकर ने दीक्षा भूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर,14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं.800000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था.उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके.ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं. ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं.इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म,जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है. प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाएँ निम्न हैं:
  1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
  2. मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
  3. मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
  4. मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ
  5. मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ
  6. मैं श्रद्धा (श्राद्ध) में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा.
  7. मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करूँगा
  8. मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा
  9. मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ
  10. मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करूँगा
  11. मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा
  12. मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित परमितों का पालन करूँगा.
  13. मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और प्यार भरी दयालुता रखूँगा तथा उनकी रक्षा करूँगा.
  14. मैं चोरी नहीं करूँगा.
  15. मैं झूठ नहीं बोलूँगा
  16. मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा.
  17. मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा.
  18. मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करूँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करूँगा.
  19. मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ
  20. मैं दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ की बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है.
  21. मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म ले रहा हूँ (इस धर्म परिवर्तन के द्वारा).
  22. मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करूँगा.

Thursday, August 9, 2018

विश्व मूलनिवासी दिवस क्यों मानते है? कारण


विश्व मूलनिवासी दिवस पर विशेष, क्यों मनाते हैं

अंतराष्ट्रीय स्तर पर आज 9 अगस्त  विश्व मूलनिवासी दिवस मनाया जाएगा, मूलनिवासी दिवस को लेकर मूलनिवासी संघ औऱ बामसेफ संगठन भी जोर-शोर से मना रहे हैं, माना जाता है कि विश्व मूलनिवासी दिवस देश के उन लोगों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए मनाया जाता है जो इस देश के असली वासी है यानी की मूलनिवासी है।

वर्ल्ड इंडिजिनस डे (World Indigenous Day) विश्व मूलनिवासी दिवस 9 अगस्त 2018 ><मूलनिवासियों के मानवाधिकारों को लागू करने और उनके संरक्षण के लिए 1982 में UNO (संयुक्त राष्ट्र संघ) ने एक कार्यदल UNWGIP (United Nations Working Group on Indigenous Populations) के उपआयोग का गठन किया। 

जिसकी पहली बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। इसलिए, प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को "विश्व मूलनिवासी दिवस" UNO द्वारा अपने कार्यालय में एवं अपने सदस्य देशों को मनाने का निर्देश है। मूलनिवासी समाज की समस्याओं के निराकरण हेतु विश्व के देशों का ध्यानाकर्षण करने के लिए सबसे पहले UNO ने 1982 में होने वाले सम्मेलन के 300 पन्नों के एजेंडे में 40 विषय रखे जो 4 भागों में बांटे गए। तीसरे भाग में रियो-डी-जनेरो (ब्राजील) सम्मेलन में विश्व के मूलनिवासियों की स्थिति की समीक्षा की और चर्चा कर प्रस्ताव पारित किया। UNO ने यह महसूस किया कि 21वीं सदी में भी विश्व के विभिन्न देशों में निवासरत मूलनिवासी समाज अपनी उपेक्षा, बेरोजगारी एवं बंधुआ बाल मजदूरी जैसी समस्याओं से ग्रसित है। 

1993 में UNWGIP कार्य दल के 11 वें अधिवेशन में मूलनिवासी घोषणा प्रारूप को मान्यता मिलने पर 1994 को "मूलनिवासी वर्ष" व 9 अगस्त को "मूलनिवासी दिवस" घोषित किया। अतः मूलनिवासियों को हक अधिकार दिलाने और उनकी समस्याओं का निराकरण, भाषा, संस्कृति, इतिहास के संरक्षण के लिए UNO की महासभा द्वारा 9 अगस्त 1994 को जेनेवा शहर में विश्व के मूलनिवासी प्रतिनिधियों का विशाल एवं विश्व का "प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दिवस" का सम्मेलन आयोजित किया गया। मूलनिवासियों की संस्कृति, भाषा, उनके मूलभूत हक अधिकारों को सभी ने एक मत से स्वीकार किया और उनके सभी हक अधिकार बरकरार रहें इस बात की पुष्टि कर दी गई तथा UNO ने "हम आपके साथ हैं", यह वचन मूलनिवासियों को दिया गया। UNO ने व्यापक चर्चा के बाद 21 दिसंबर 1994 से 20 दिसंबर 2004 तक "प्रथम मूलनिवासी दशक" तथा प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को International Day of the World's Indigenous Peoples (विश्व मूलनिवासी दिवस) मनाने का फैसला लिया और विश्व के सभी देशों को मनाने के निर्देश दिए। विश्व के समस्त देशों में इस दिवस को मनाया जाने लगा 

किन्तु अफसोस! भारत की ब्राम्हणवादी सरकारों ने मूलनिवासियों के साथ धोखा करते हुए भारत में इस दिन के बारे में आज तक किसी को नहीं बताया और ना ही आज तक मनाया। जबकि UNO ने पुनः 16 दिसंबर 2004 से 15 दिसंबर 2014 तक फिर "दूसरा मूलनिवासी दशक" घोषित किया। जेनेवा के सम्मेलन में भारत सरकार ने अपने प्रतिनिधि के रूप में डा बाबासाहेब अम्बेडकर के सगे पौत्र मा प्रकाश अम्बेडकर द्वारा UNO को यह अवगत कराया कि "भारत में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा परिभाषित देशज लोग अर्थात मूलनिवासी भारतीय लोग ही ही नहीं है और यहाँ के अनुसूचित जाति, जन जातियों से किसी भी प्रकार का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व शैक्षिक पक्षपात हो रहा हैं।" 
इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ में ग्लोबल इकनॉमी के संबंध में मूलनिवासियों को जो प्रतिनिधित्व मिलने वाला था, उसे मनुवादियों ने अपने में से एक एक मूलनिवासी के द्वारा ही समाप्त कर दिया। UNO द्वारा पिछले 22 वर्षों से निरन्तर विश्व मूलनिवासी दिवस मनाया जा रहा है, किन्तु भारत के मूलनिवासी बहूजनो को इसकी कोई जानकारी नहीं है।

भारत में तमाम जातियों और वर्णों में बंटे लोग रहते हैं. कहा जाता है कि इस देश के असली मूलनिवासी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग समेत आदिवासी भी है, जिसे बहुजन समाज भी कहते हैं, लेकिन ब्राह्मणवादी सरकारों ने बहुजन समाज को टुकड़ों में बांटने के लिए साजिश के तहत मूलनिवासी दिवस को आदिवासी दिवस बनाने की कोशिश की, जिससे की इनमें आपस में ही टकराव हो जाए और यह आपस में ही बंट जाए !

विज्ञान के अकाट्य प्रमाण DNA test जिसकी रिपोर्ट Times of India में 21 मई 2001 में छपी, जिसके अनुसार SC/ST/OBC और उससे धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यक ही भारत के मूलनिवासी  है, और ब्राह्मण, क्षञिय, वैश्य यह विदेशी युरेशियन नस्ल के हैं, मतलब विदेशी हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर मूलनिवासियों की समस्याओं को मजबूती के साथ रखने की पूर्व तैयारी के सन्दर्भ में ही बामसेफ के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अध्यक्ष मा वामन मेश्राम जी ने 23 जुलाई 2016 को लंदन (इंग्लैंड), 26 जुलाई 2016 को पेरिस (फ्रांस) व 01 अगस्त 2016 को रोम (इटली) में बामसेफ द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों का आयोजन किया।

Wednesday, December 6, 2017

डॉ भीमराव अंबेडकर जी की मृत्यु - कब, कैसे और कहाँ हुई?

1948 से, अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया।

Tuesday, November 28, 2017

ज्योतिबा फूले पुण्यतिथि- 28 नवंबर 1890



महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले की पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन

विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी |
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया |
वित्त बिना शूद गये, इतने अनर्थ, एक अविद्या ने किये ||
 – ज्योतिबा फुले
पूरे जीवन भर गरीबों, दलितों और महिलाओ के लिए संघर्ष करने वाले इस सच्चे नेता को जनता ने आदर से ‘महात्मा’ की पदवी से विभूषित किया।


ज्योतिराव गोविंदराव फुले की आज पुण्यतिथि है और 28 नवंबर 1890 को उनका देहांत हुआ था. 19वीं सदी के एक महान भारतीय विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे. उनको महात्मा फुले एवं ज्योतिबा फुले के नाम से जाना जाता है. जाने-माने सुधारक और दलित एवं महिला उत्‍थान के लिए जीवन न्‍योछावर करने वाले ज्योतिबा फुले को शत् शत् नमन- जय भीम नमो बुद्धाय

Saturday, November 25, 2017

संविधान दिवस का जश्न क्यों मनाएं? हिंदी में जानें -why Celebrate the Constitution Day? Know in Hindi

संविधान दिवस की हार्दिक शुभकामनाए-
जय भीम नमो बुद्धाय

भारत में संविधान दिवस

भारत में 26 नवम्बर को हर साल संविधान दिवस मनाया जाता है, क्योंकि वर्ष 1949 में 26 नवम्बर को संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान को स्वीकृत किया गया था जो 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया।डॉ0 बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर जी को भारत के संविधान का जनक कहा जाता है।
भारत की आजादी के बाद काग्रेस सरकार ने 
डॉ0 बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर जी को भारत के प्रथम कानून मंत्री के रुप में सेवा करने का निमंत्रण दिया। उन्हें 29 अगस्त को संविधान की प्रारुप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। वह भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार थे और उन्हें मजबूत और एकजुट भारत के लिए जाना जाता है।

Thursday, October 19, 2017

दीप दान उत्सव क्या है जाने

दिप्दानोत्सव क्‍या है जाने इसके बारे मे।
       जय भीम नमो बुद्धाय : ब्राह्मणों ने बौध और मूलनिवासी यानी असली भारत निवासिओ के इतिहास को या तो पूरी तरह ध्वस्त करने की कोशिस की या उनकी संस्कृति को अपसंस्कृति बनाने का प्रयास किया दीपावली / यानी दीपदान उत्सव यह एक बौध त्यौहार है लेकिन ब्राह्मणों ने इसे अपनी काल्पनिक कथा से जोड़ दिया रामायण वो काल्पनिक कथा है जिसका मंचन मध्यकाल अकबर शासनकाल में तुलसीदास दुबे ने शुरू किया था वैसे भी इसे ध्यान से देखा जाए की नवरात्रि के दौरान रामलीला का मंचन क्यों होता है जबकि नवराति की कहानी कुछ और है इसी तरह ब्राह्मणों द्वारा /लिखे बनाए गए रीत रिवाज त्यौहार कही नहीं टिकते , ब्राह्मण विदेशी हमलावर आर्य है